अफ़ज़ल ख़ान, OCTOBER 23, 2014 तब्लीगी जमात जो के अल्लाह की गाय के नाम से मशहूर है. हर साल लाखों की संख्या में लोग तबलीग़ी समारोहों में भाग लेते हैं
तब्लीगी जमात जो के अल्लाह की गाय के नाम से मशहूर है. हर साल लाखों की संख्या में लोग तबलीग़ी समारोहों में भाग लेते हैं, तो यह लाखों लोग पूरे देश में फैल जाते हैं और धर्म की हिदायत करते हैं. पिछले पच्चीस से तीस वर्षों में यह संख्या कुछ हजार से बढ़कर करोडो में पहुँच गयी है और इस में इजाफा ही होता चला जा रहा है . इन का मुख्य केंद्र भारत , पाकिस्तान , बांग्लादेश है मगर अब कुछ विदेशो में भी इस का विस्तार हो चूका है . हाँ, यह एक बहुत बड़ा लेकिन है. मगर पिछले पच्चीस, तीस साल में प्रचार घटना में जितना इजाफा हुआ है, उतना ही इन देशो में मुसलमानो के अंदर में अत्याचार, उत्पीड़न, अन्याय और भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई है. ऐसा क्यों है? इसका जवाब प्रचार करने वालों के पास भी नहीं है. (मासवा इसके कि इसकी वजह भी अमेरिका और इजरायल की साजिश में खोज हो).
मुझे उन प्रचार में मुख्य समस्या यह दिखती है कि उनका सारा जोर पूजा या इबादत की हिदायत पर होता है. समस्याओं का सामना करने की बजाय उनके पास हर समस्या का एक सरल सा जवाब है: “धर्म से दूरी”. और धर्म से मतलब दो, तीन बातें हैं: नमाज़ पढ़ना, कुरान की तिलावत करना, दाढ़ी रखना, सलवार टखने ऊपर बांधना आदि.उन का कहना के सब अल्लाह के सहारे छोड़ दो , जो भी हो ग अल्लाह करे गा बस हम अल्लाह की इबादत करते रहे , मगर इन को कौन समझाए के अल्लाह ने इंसान को सिर्फ इबादत के लिए पैदा नहीं किया है बल्कि अल्लाह ने सांसारिक जीवन भी बिताने को कहा है . (यहां यह सवाल भी उठता है कि पश्चिमी देशों में धर्म से दूरी के बावजूद इतनी रिश्वत सताने क्यों नहीं, वहाँ अनाथों और विधवाओं और गरीबों की संपत्तियों पर लोग कब्जे क्यों नहीं करते ?)
ये लोग आम सीधे सादे आदमी को पकड़ कर उनकी सारी उपस्थिति चीजों और अधिनियमों के बारे में तो पढ़ा / बता देंगे, लेकिन जो लोग समाज में त्रुटियाँ फैला रहे हैं उनके पास जा कर कोई प्रचार नहीं करे गे.या कभी किसी ऐसे व्यक्ति के पास प्रतिनिधिमंडल लेकर नहीं जाएंगे जो किसी अनाथ की संपत्ति पर अवैध कब्जा कर रखा है, न कभी किसी अधिकारी के पास जाएगा जो भ्रष्टाचार में लिप्त हो, या किसी ऐसे व्यक्ति के पास नहीं जाएंगे जो क्षेत्र में drugs का धंधा रहा है. पता नहीं ऐसे समाज विरोधी तत्व प्रचार करने की हिम्मत ही नहीं होती या जरूरत नहीं महसूस की.
लेकिन अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि ये लोग आम आदमी “खसी” बना देते हैं यानी इसे ऐसा कर दीतेहीं कि देश व राष्ट्र के किसी काम का नहीं रहता. हर बंदे के हाथ में तस्बीह देकर मस्जिद में बिठा देते हैं. इस दुनिया में जो कुछ हो रहा है उसे छोड़ो, भविष्य की चिंता करो. भाई क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मेरी दुनिया भी सनोवर जाए और इसके बाद भी. क्या धर्म हमें इस दुनिया में होने वाले अत्याचार और उत्पीड़न से आंखें बंद कर लेना सिखाता है. अगर नहीं तो इस देश में दैनिक आधार पर होने वाली हत्या और भंग के खिलाफ यह लाखों तबलीगयों किया (शायद बीस बीस लाख सम्मेलनों में रिक़्क़ते उच्च स्वर में भगवान से दुआ की हैं, मगर कोई उन्हें बताए समाज दुआओं से नहीं सधरतेोवरना हज़रत मोहम्मद भी गुफा हुर्रा में बैठ कर दुवा करते, वहां से नीचे आने की क्या जरूरत थी).
असल में तब्लीगियो ने आम आदमी को अपने जिम्मेदारियो सांसारिक दायित्वों से अनजान कर देश व राष्ट्र का बेड़ा गर्क कर दिया है . मगर तबलीगयों के अपने प्रचार में यह खुला विरोधाभास नजर नहीं आता. वे हर किसी को अपने साथ प्रचार में ले जाने पर ज़िद हैं.खुद तो अपनी जिम्मेदारियों से बचते है और दूसरे को भी इसी राह पे लगाने की कोशिश करते है. सवाल यह है कि अगर कोई व्यक्ति अपना घर बार, पत्नी बच्चे छोड़कर साल भर, तीन महीने या चालीस दिन के लिए दूसरों को सीधा रास्तादिखाने निकल पड़े और इस बीच अपने घर वाले भटक जाएं तो क्या तीर मारा. पत्नी बीमार बच्चे को ले करकहाँ मारी मारी फिरे होगी जिसे पता ही नहीं कि अपने शहर अस्पताल किधर है और जिसे आप पुरुष चिकित्सक से मिलने नहीं देते कि वह नामहरम है. यह कौन समझेगा और समझाए कि जिस व्यक्ति पर चार पांच लाख रुपये का उधार हो वह अपनी दुकान बंद करके या नौकरी छोड़ कर प्रचार न निकले बल्कि पहले अपनी जिम्मेदारी पूरी करे, फिर दूसरों को सुधार करे.
तबलीगयों से आखिर में यही कहना चाहू गा के कि आप अपनी सारी जिम्मेदारियां पूरी करते हुए समाज में हो रहे अन्याय के खिलाफ संगठित तरीके से संघर्ष करे. इससे बढ़कर न तो धर्म की सेवा कर सकते हैं और न ही बढ़कर कोई अल्लाह की पूजा हो सकती है. वरना चुपचाप मस्जिद के किसी कोने में बैठकर तस्बीह घुमा घुमा कर अपनी स्वर्ग पक्की करते रहें और बाकी लोगों को नाकारा न बनाये खास तौर से समाज के नवयुको को “खसी” न करें, उन्हें समाज में अपना योगदान करने दें.
मूल लेखक — वसतुल्लाह खान
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